मन से बचपन नहीं गया है
असली के चक्कर में नकली
माल बाँधकर घर को लाते ।
छायी देख सफेदी ऊपर
लोग हमेशा शीश झुकाते ॥
सेविंग कर गालों पर अपने
महंगे -महंगे लेप सजाते ।
हैं तो नकली फिर भी अपने
बिन बोले ही दाँत दिखाते ,
गंजे सिर के ऊपर अक्सर
काला -काला रंग लगाते । ।
तन से उम्र ढली है लेकिन
मन से बचपन नहीं गया है ।
बनकर घूमे छैलबिहारी ,
मानो यौवन नया -नया है ।
युवती के सिर अपने दोनों
धीरे -धीरे हाथ घुमाते ॥
बाहर से है धवल चाँदनी
पर अन्दर मावस की रातें ।
सुना रहे हैं अपनी बीती
झूठी सच्ची सारी बातें ।
पतझड़ का मौसम है फिर भी
घोर बसंती तीर चलाते ॥
दीप जलाने आ जाना
मेरे मन के इस दीपक को
तुम आज जलाने आ जाना ।
जैसे भी सम्भव हो तुमको
तुम उसी बहाने आ जाना ॥
माना की हूँ खंडर जैसा
पर काम सभी के आता हूँ ।
जो जन जैसा कहते मुझको
मैं वैसा ही बन जाता हूँ ।
मेरे इस सूने आँगन में
तुम फूल चढ़ाने आ जाना ॥
जो छुपी हुई है घूँघट में
कल जाने भीत कहाँ होगी ।
हृदय में राज तमस का तो
आभा की ज्योति कहाँ होगी ॥
वीराने पनघट के तट पर
तुम गीत सुनाने आ जाना ॥
उन विगत दिनों की आभा को
मैंने ही पल -पल देखा है ।
कितने ही राजघरानों को
आते औ जाते देखा है ।
मेरे अंतस में छुपे हुए
तुम राज बताने आ जाना ॥
जैसे भी सम्भव हो तुमको
तुम उसी बहाने आ जाना ॥
- डॉ जयप्रकाश मिश्रा
गाजियाबाद, उ0 प्र0