डॉ जयप्रकाश मिश्र की कवितायें

मन से बचपन नहीं गया है 

 

असली के चक्कर में नकली

माल बाँधकर घर को लाते ।

छायी देख सफेदी ऊपर

लोग हमेशा शीश झुकाते ॥

 

सेविंग कर गालों पर अपने

महंगे -महंगे लेप सजाते ।

हैं तो नकली फिर भी अपने

बिन बोले ही दाँत दिखाते ,

गंजे सिर के ऊपर अक्सर

काला -काला रंग लगाते । ।

 

तन से उम्र ढली है लेकिन

मन से बचपन नहीं गया है ।

बनकर घूमे छैलबिहारी ,

मानो यौवन नया -नया है ।

युवती के सिर अपने दोनों

धीरे -धीरे हाथ घुमाते ॥

 

बाहर से है धवल चाँदनी

पर अन्दर मावस की रातें ।

सुना रहे हैं अपनी बीती

झूठी सच्ची सारी बातें ।

पतझड़ का मौसम है फिर भी

घोर बसंती तीर चलाते ॥

 

 

दीप जलाने आ जाना 

 

मेरे मन के इस दीपक को

तुम आज जलाने आ जाना ।

जैसे भी सम्भव हो तुमको

तुम उसी बहाने आ जाना ॥

 

माना की हूँ खंडर जैसा

पर काम सभी के आता हूँ ।

जो जन जैसा कहते मुझको

मैं वैसा ही बन जाता हूँ ।

मेरे इस सूने आँगन में

तुम फूल चढ़ाने आ जाना ॥

 

जो छुपी हुई है घूँघट में

कल जाने भीत कहाँ होगी ।

हृदय में राज तमस का तो

आभा की ज्योति कहाँ होगी ॥

वीराने पनघट के तट पर

तुम गीत सुनाने आ जाना ॥

 

उन विगत दिनों की आभा को

मैंने ही पल -पल देखा है ।

कितने ही राजघरानों को

आते औ जाते देखा है ।

मेरे अंतस में छुपे हुए

तुम राज बताने आ जाना ॥

 

जैसे भी सम्भव हो तुमको

तुम उसी बहाने आ जाना ॥

 

  • डॉ जयप्रकाश मिश्रा

गाजियाबाद, उ0 प्र0

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