थाइलैंड मे सम्पन्न हुये एक हिन्दी साहित्य के सम्मान समारोह मे हिन्दी की गूंज की प्रधान संपादक रमा शर्मा को ‘थाई भारत गौरव सम्मान’ से सम्मानित किया गया। हिन्दी की गूंज पत्रिका परिवार इस सम्मान से आह्लादित है।
Read MoreDay: September 1, 2023
जापान में भारतीय दूतावास में रक्षाबंधन
जापान में भारतीय दूतावास में रक्षाबंधन मनाया गया । बच्चों ने भारतीय दूत ( एम्बेसडर) को राखी बांधी, हम सब ने भी उन्हें तथा उनकी पत्नी को तिलक किया, रक्षाबंधन के गीत गाये गए और …….. हिंदी की गूंज पत्रिका का लोकार्पण हुआ वहाँ आप सब को भी रक्षाबंधन और हिंदी की गूंज की सफलता की अनेकों बधाई।
Read Moreबदलाव के साथ स्वयं को समायोजित करने का गुण हर परिस्थिति में कारगर
भारतीय मूल का व्यक्ति विश्व में कहीं भी, किसी भी देश में हो–एक अलग पहचान रखता है| भारतीय सभ्यता, संस्कृति की झलक व्यक्तित्व को एक अलग आभा प्रदान कर एक विशिष्ट पहचान देती है| उत्तर-दक्षिण, पूर्व-पश्चिम, दिशाएँ महत्त्व नहीं रखती, महत्त्व होता है जड़ों का| भारत की मिट्टी से जुड़ाव, फिर वह जुड़ाव चाहे कितने ही वर्षों पुराना हो| जैसे एक परिवार के विभिन्न लोग अपना वैशिष्ट्य बनाये हुए भी एक-दूसरे से मिलते-जुलते-से लगते हैं वैसे ही विश्व के किसी कोने में रहने वाला भारतीय मूल का व्यक्ति एक विशेष…
Read Moreसंपादकीय
समस्या कोई ऐसी नहीं जिसका समाधान न हो लेकिन मनुष्य का चंचल मन जल्दी छुटकारा पाना के लिए कभी-कभी ऐसी गलतियाँ कर बैठता है जिससे वो समस्या में उलझता ही जाता है | समस्या आने पर सबसे पहला कार्य तो यह है कि खूब अच्छे से शांत मन से उस पर विचार करें कि यह क्यों आया और इसके संभव समाधान क्या हो सकते हैं फिर अपने सामर्थ्य ,बुद्धि और विवेक से इसके समाधान पर कार्य प्रारम्भ करना चाहिए | मन को शांत रख कर जीवन में ख़ुशी प्राप्त करने…
Read Moreसंपादकीय
आगे बढ़ना चाहिए | कुछ की मनुष्य होंगे जिसकी सारी मनोकामना पूरी होती हो,जिसके सारे कार्य सिद्ध होते हो ,जिसका हर उद्देश्य पूरा होता हो | इसलिए संतोष सबसे जरुरी है | कुछ लोग असफलता को बर्दाश्त नहीं पाते वो सच्चे मायने में जीवन की सार्थकता को समझ नहीं पाते हैं | सफलता और असफलता आगे पीछे चलते हैं | दोनों का समावेश संभव है इसे स्वीकार करना ही जीत का मूल मन्त्र है | असफलता आपको और मजबूत करने के लिए होती है ,आपको अपनी गलतियों को समझने का…
Read Moreमुस्कान खोती कली
बाग में वो कली मुस्कुराती रही, जिंदगी की खुशी यूँ लुटाती रही। बेखबर थी किसी की बुरी चाल से, पास अपने भ्रमर को बुलाती रही। क्या पता था उसे आ रही है बला? खेल ही तो समझ खिलखिलाती रही। होश आया तभी जब खुला माजरा, फँस गयी कैद में छटपटाती रही। बिंधता ही गया था कली का हृदय, ‘गूँज’ गुम हो गयी, साँस जाती रही। गीता चौबे गूँज राँची झारखंड
Read Moreएक दिन तू आएगा ज़रूर
तू तो अलग ही मिट्टी का बना था वतन परस्ती के इश्क़ में रमा था तेरी तो बस इतनी सी दास्तान है तेरे महबूब का नाम हिन्दुस्तान है ऐशो आराम ,रेशमी लिबास कहाँ तूने तो बस चुना तिरंगे का कफ़न वतन की शान जिसकी पहचान उस वीर को हमारा शत शत नमन एक सवाल… तेरे बलिदान से मुल्क में क्या बदला? सब कुछ तो अब भी पहले जैसा है चौराहे की मूर्ति बन तू रह गया सबसे क़ीमती आज भी बस पैसा है माँ तो आज भी तेरी राह तकती है बाप की आँखों से उदासी झलकती है बहन ससुराल गई फिर भी वो उदास हैं राखी से तेरी कलाई सजाने की आस है तेरी सोहनी आज भी ख़ूब सँवरती हैं उसे आज भी तेरे आने का इंतज़ार है लौटकर वापस कभी ना आएगा तू मानने को ये बात क़तई न तैयार है तू तो ज़मीनी रिश्तों से मुँह मोड़ गया अपनों को दिया हर वादा तोड़ गया कभी वहाँ से ज़रा झाँक के तो देख सिक्के के दूसरे पहलू को आंक के तो देख माँ ने अभी अभी चूल्हा जलाया है तेरे हिस्से की रोटी प्यार से पकाया है छोटी सी इल्तजा है एक बार तो आजा माँ के हाथों से दो निवाला तो खा जा मोतियाबिंद बाप की आँखे निगल रही है उसे अपना वर्दी वाला रूप तो दिखा जा सोहनी आज भी लाल जोड़ा पहने बैठी है सूनी माँग उसकी एक बार तो सजा जा वतन का हर फ़र्ज़ तो अता किया तूने बाक़ी रह गये इन क़र्ज़ों को भी चुका जा मुझे यक़ीन है … तेरा गाँव तुझे बुलाएगा ज़रूर तू अपनों से मिलने आएगा ज़रूर हवा के झोंके संग, ओस की बूंदें बन खेतों की हरियाली में, शाम की लाली में घटाओं में ढल, बारिश की बूंदों में बदल अपने गाँव में बरस जाने खेतों की मिट्टी में समा जाने अपनों की प्यास बुझा जाने मुझे यक़ीन है तू आएगा बारिश की बूंदों संग ज़रूर आएगा श्वेता सिंह ‘उमा’ मास्को, रुस
Read Moreमीना अरोरा की दो लघुकथाएँ
एक्सपेरिमेंट जूनियर डाक्टर सीनियर डाक्टर से:-“सर,आज जो नया पेशेंट आया है।उसकी भी वही हालत है जो दो दिन पहले मरने वाले मरीज की थी।” सीनियर:-“मतलब,इसका भी हीमोग्लोबिन कम है। इस बार तुम पिछले वाले से एक यूनिट कम ब्लड चढ़ाना। पिछली बार ब्लड की मात्रा बढ़ने से ही मरीज की मौत हुई है।” जूनियर:-“ठीक है सर,इस बार कम ब्लड चढ़ा कर देखता हूं। अगर यह वाला मरीज बच गया तो आगे से एक साथ बहुत सारा ब्लड नहीं चढ़ाया करूंगा।” सीनियर डाक्टर हंसते हुए:-“अपने साथ वालों से इंटेलिजेंट हो…
Read Moreमाँ का चेहरा
अभी कल की ही बात है आयुष का अख़बार में नाम छपा था, अपने ज़िले में दसवीं कक्षा में टॉप किया था उसने। बारहवीं में भी अच्छे अंक पाकर देश के प्रतिष्ठित इंजीनियरिंग संस्थान आई.आई. टी दिल्ली में दाखिला हुआ था। भगवान बुरी नज़र से बचाये, माँ उसकी बलायें लेती न थकती थी। आखिर वह दिन भी आ गया जब उसे दिल्ली के लिए रवाना होना था। माँ का रो रोकर बुरा हाल था और साथ ही चिंता ..दिल्ली जैसे बड़े शहर में ..कहीं कुछ अनहोनी न घट जाए ।…
Read Moreकलमुँही
हाँ!! यही तो नाम था उसका, बचपन से बस इसी नाम से तो पुकारा जाता था उसे, नानी भी यही कहती थी ‘अरी कलमुँही! बहरी है क्या, अरे कलमुँही! पैदा होते ही मर क्यों न गयी, उनके ये शब्द सदा ही जिन्दा होने के एहसास को मार देते थे। लगता था कोई पुतला है वो, जिसमे रोबोटिक शक्ति आ गयी हो और नाना उसे देखकर जाने क्यों सर घुमा लेते थे। सच कहूँ तो कभी समझ नहीं पायी वो, कि ये घृणा थी या शर्मिंदगी, पर जो भी थी बहुत सच्ची थी। ये तो है जब भी जिसने भी उसके प्रति अपनी भावना दर्शायी, बिलकुल सोलह आने सच्ची थी। हाँ!! ये बात अलग है उसमे नफरत, घृणा, कडुवाहट ही उसके हिस्से आई। कहते है न कोई बात बार – बार कही जाये, तो वो ही अच्छी लगने लगती है, बस बहुत प्यारा लगने लगा उसे उसका नाम ”कलमुँही”। कई बार जानना चाहा क्यों है कलमुँही वो। रंग तो गोरा था उसका, शुक्लपक्ष के चाँद जैसा, उजला। कहा तो किसी ने कभी नहीं मुँह से, पर दर्पण कहता था रात के अँधेरे में चुपके से जब वो उसे देखती थी, अंतर्मन दर्पण की आवाज बनकर चीत्कार करता था “बहुत सुन्दर है रे तू कलमुँही”। हँस पड़ती थी वो खुलकर, एक रात और अंधेरा ही तो उसका अपना था। पर तब भी जाने क्यों आँखे कभी उसकी ख़ुशी का साथ नहीं देती थी, जलनखोट्टी भर जाती थी नीर से और कर देती थी धुंधला, अधूरे पूरे सच को। कहती थी वो दीदी!! दुश्मन अखियाँ ! मेरी सुन्दरता से जलकर आँसू बहाती है । यौवन आया तो सपने भी आये सोचा कोई तो अपना होगा जो उसके रूप को सराहेगा कम से कम कलमुँही नहीं कहेगा। पर कलमुँही ! कलमुँही ही रही, क्या सास, क्या पति बस परिवेश और घर बदल गए थे। भावनाएं वही चित-परिचित। यूँ तो उसे आदत थी अपने प्रति लोंगों की उपेक्षा और तिरस्कार के व्यवहार की। पर स्वप्न टूटे थे वो भी यौवन के प्रेम और अनुराग से पूर्ण। बचपन से यही व्यवहार उसके लिए सामान्य व्यवहार रहा था इसलिए बुरा लगने की भावना से कोसों दूर थी। पर प्रेम जिसकी लालसा थी उसे, जो कल्पना मे था उसके, पति से उपेक्षा असहनीय क्यों होने लगी थी। सुना था मिट्टी की दीवारों के पीछे से उसने जब नाना ने कहा था जमीन जाती है तो जाये बस इस कलमुँही को निकालो यहां से। प्रश्न तो ये भी था क्या वो दहेज के नाम पर बेची गयी थी पर उससे भी विकट प्रश्न प्रेम का न होना था। उम्र के सोलहवें दौर मे प्रेम से बड़ा कोई प्रश्न नही होता है। क्यों नही करते मेरे अपने मुझसे प्रेम, जिज्ञासा ने मन को झकझोर दिया, माना गड़े मुर्दे उखाड़ने से सडांध ही फैलती है, पर जानना था और जान भी गयी, निशानी थी कलमुँही, किसी की मानसिक विकृतता की, वहशी पन, तन की भूख की। उसकी माँ तो पुरुष के दंभ, भूख, हविश का शिकार हो गयी पर उसे छोड़ गयी जीते जी मरने के लिए। सोच में थी और पीड़ा में भी …द्वन्द – अंतर्द्वंद सा उठा था मन में ”कलमुँही वो कैसे” ?? उसका तो दोष भी नहीं था, फिर आप उन्हें क्या कहेंगे जो कर्म काला करते है???? प्रश्न! प्रश्न! प्रश्न! उत्तर अनुत्तरित कलमुँही। @डॉ शिप्रा शिल्पी सक्सेना शिक्षाविद, साहित्यकार, पत्रकार, कवियत्री एवं मीडिया इंस्ट्रक्टर कोलोन, जर्मनी saksenashipra@gmail.com
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