मुस्कान खोती कली

बाग में वो कली मुस्कुराती रही, जिंदगी की खुशी यूँ लुटाती रही।   बेखबर थी किसी की बुरी चाल से, पास अपने भ्रमर को बुलाती रही।   क्या पता था उसे आ रही है बला? खेल ही तो समझ खिलखिलाती रही।   होश आया तभी जब खुला माजरा, फँस गयी कैद में छटपटाती रही।   बिंधता ही गया था कली का हृदय, ‘गूँज’ गुम हो गयी, साँस जाती रही।               गीता चौबे गूँज राँची झारखंड

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