एक्सपेरिमेंट जूनियर डाक्टर सीनियर डाक्टर से:-“सर,आज जो नया पेशेंट आया है।उसकी भी वही हालत है जो दो दिन पहले मरने वाले मरीज की थी।” सीनियर:-“मतलब,इसका भी हीमोग्लोबिन कम है। इस बार तुम पिछले वाले से एक यूनिट कम ब्लड चढ़ाना। पिछली बार ब्लड की मात्रा बढ़ने से ही मरीज की मौत हुई है।” जूनियर:-“ठीक है सर,इस बार कम ब्लड चढ़ा कर देखता हूं। अगर यह वाला मरीज बच गया तो आगे से एक साथ बहुत सारा ब्लड नहीं चढ़ाया करूंगा।” सीनियर डाक्टर हंसते हुए:-“अपने साथ वालों से इंटेलिजेंट हो…
Read MoreCategory: लघुकथा
माँ का चेहरा
अभी कल की ही बात है आयुष का अख़बार में नाम छपा था, अपने ज़िले में दसवीं कक्षा में टॉप किया था उसने। बारहवीं में भी अच्छे अंक पाकर देश के प्रतिष्ठित इंजीनियरिंग संस्थान आई.आई. टी दिल्ली में दाखिला हुआ था। भगवान बुरी नज़र से बचाये, माँ उसकी बलायें लेती न थकती थी। आखिर वह दिन भी आ गया जब उसे दिल्ली के लिए रवाना होना था। माँ का रो रोकर बुरा हाल था और साथ ही चिंता ..दिल्ली जैसे बड़े शहर में ..कहीं कुछ अनहोनी न घट जाए ।…
Read Moreकलमुँही
हाँ!! यही तो नाम था उसका, बचपन से बस इसी नाम से तो पुकारा जाता था उसे, नानी भी यही कहती थी ‘अरी कलमुँही! बहरी है क्या, अरे कलमुँही! पैदा होते ही मर क्यों न गयी, उनके ये शब्द सदा ही जिन्दा होने के एहसास को मार देते थे। लगता था कोई पुतला है वो, जिसमे रोबोटिक शक्ति आ गयी हो और नाना उसे देखकर जाने क्यों सर घुमा लेते थे। सच कहूँ तो कभी समझ नहीं पायी वो, कि ये घृणा थी या शर्मिंदगी, पर जो भी थी बहुत सच्ची थी। ये तो है जब भी जिसने भी उसके प्रति अपनी भावना दर्शायी, बिलकुल सोलह आने सच्ची थी। हाँ!! ये बात अलग है उसमे नफरत, घृणा, कडुवाहट ही उसके हिस्से आई। कहते है न कोई बात बार – बार कही जाये, तो वो ही अच्छी लगने लगती है, बस बहुत प्यारा लगने लगा उसे उसका नाम ”कलमुँही”। कई बार जानना चाहा क्यों है कलमुँही वो। रंग तो गोरा था उसका, शुक्लपक्ष के चाँद जैसा, उजला। कहा तो किसी ने कभी नहीं मुँह से, पर दर्पण कहता था रात के अँधेरे में चुपके से जब वो उसे देखती थी, अंतर्मन दर्पण की आवाज बनकर चीत्कार करता था “बहुत सुन्दर है रे तू कलमुँही”। हँस पड़ती थी वो खुलकर, एक रात और अंधेरा ही तो उसका अपना था। पर तब भी जाने क्यों आँखे कभी उसकी ख़ुशी का साथ नहीं देती थी, जलनखोट्टी भर जाती थी नीर से और कर देती थी धुंधला, अधूरे पूरे सच को। कहती थी वो दीदी!! दुश्मन अखियाँ ! मेरी सुन्दरता से जलकर आँसू बहाती है । यौवन आया तो सपने भी आये सोचा कोई तो अपना होगा जो उसके रूप को सराहेगा कम से कम कलमुँही नहीं कहेगा। पर कलमुँही ! कलमुँही ही रही, क्या सास, क्या पति बस परिवेश और घर बदल गए थे। भावनाएं वही चित-परिचित। यूँ तो उसे आदत थी अपने प्रति लोंगों की उपेक्षा और तिरस्कार के व्यवहार की। पर स्वप्न टूटे थे वो भी यौवन के प्रेम और अनुराग से पूर्ण। बचपन से यही व्यवहार उसके लिए सामान्य व्यवहार रहा था इसलिए बुरा लगने की भावना से कोसों दूर थी। पर प्रेम जिसकी लालसा थी उसे, जो कल्पना मे था उसके, पति से उपेक्षा असहनीय क्यों होने लगी थी। सुना था मिट्टी की दीवारों के पीछे से उसने जब नाना ने कहा था जमीन जाती है तो जाये बस इस कलमुँही को निकालो यहां से। प्रश्न तो ये भी था क्या वो दहेज के नाम पर बेची गयी थी पर उससे भी विकट प्रश्न प्रेम का न होना था। उम्र के सोलहवें दौर मे प्रेम से बड़ा कोई प्रश्न नही होता है। क्यों नही करते मेरे अपने मुझसे प्रेम, जिज्ञासा ने मन को झकझोर दिया, माना गड़े मुर्दे उखाड़ने से सडांध ही फैलती है, पर जानना था और जान भी गयी, निशानी थी कलमुँही, किसी की मानसिक विकृतता की, वहशी पन, तन की भूख की। उसकी माँ तो पुरुष के दंभ, भूख, हविश का शिकार हो गयी पर उसे छोड़ गयी जीते जी मरने के लिए। सोच में थी और पीड़ा में भी …द्वन्द – अंतर्द्वंद सा उठा था मन में ”कलमुँही वो कैसे” ?? उसका तो दोष भी नहीं था, फिर आप उन्हें क्या कहेंगे जो कर्म काला करते है???? प्रश्न! प्रश्न! प्रश्न! उत्तर अनुत्तरित कलमुँही। @डॉ शिप्रा शिल्पी सक्सेना शिक्षाविद, साहित्यकार, पत्रकार, कवियत्री एवं मीडिया इंस्ट्रक्टर कोलोन, जर्मनी saksenashipra@gmail.com
Read Moreमेहबूबा
‘चलिए, जल्दी कीजिए, गाड़ी का समय हो गया है। आपका सामान चेक करके चढ़ना। वापिस लौटकर आना मिले भी या नहीं भी।गाँव के जो भी लोग मिले उसे यह बता देना।’ कहते हुए स्टेशन मास्टर रेल के स्टेशन पर दौड़ रहे थे। हिंदुस्तान से पाकिस्तान ट्रेन जा रही थीं।ये बात है 1948 के अगस्त माह की, जब भारत दो टूकडों में बँट रहा था। हिंदुस्तान और पातिस्तान के बीच रेखांकन करनेवाले ने दोनों देश की भौगोलिक स्थिति को बिना जाने ही रेखा खींच दी थीं। यह बात उस गाँव की…
Read Moreसाथी
पति की असामयिक मृत्यु के कारण रामकली के आर्थिक हालात बहुत खराब हो गए थे| जो मजदूरी करके कमा खा लेती थी वो काम धंधा भी लॉकडाउन के कारण कभी कभार ही मिलता था जिससे कभी सूखी रोटी और कभी रुखे चावलों का जुगाड़ हो जाता था| इतने पर भी उसका भगवान पर विश्वास रत्ती भर भी कम नही हुआ था और वह सबकी मदद को हमेशा तैयार रहती थी| अभी कल की ही बात है काम से लौटते वक्त सड़क पर एक बेहोश आदमी पड़ा मिल गया| पहले तो…
Read Moreमाँ की सीख
दुल्हन के लिबास में लिपटी सिमटी-सकुचाई वसुधा को ,ससुराल विदा होते समय उसकी माँ ने एक गुरु मंत्र दिया – ” बेटा यह सृष्टि का अटल सत्य है कि विवाहोपरांत ससुराल की हर लड़की का असल घर होता है। जीवन में कभी किसी की बात बुरी लगे, फिर चाहे सामने वाला कितना भी गलत क्यों ना हो ? या किसी का व्यवहार तुम्हारे प्रति रुखा हो , तुम कभी पलट कर उसे जवाब या बहस मत करना । ‘सबसे भली चुप ‘ ! इस मंत्र को यदि साध लोगी तो…
Read Moreअदला -बदली
शहर के विख्यात संभागर पूजा सदन में आज लोकप्रिय पत्रिका ‘नियति’ के 25 वर्ष होने पर कार्यक्रम का आयोजन था | पत्रिका के सम्पादक श्री देवेंद्र पर एक व्यक्तित्व एवं कृतित्व को लक्ष्य करके रघुनाथ द्वारा सम्पादित पत्रिका ‘सुलभा’ का अंक भी आज ही इसी की साथ लोकार्पित होना था | सभागार में काफी गहमा गहमी थी | मेरी बगल वाली सीट पर बैठे रवि जी ने प्रश्न किया, मित्रवर क्या बात है ? कुछ माह पहली सुलभा के संपादक रघुनाथ का व्यक्तित्व व कृतित्व पर केंद्रित ‘नियति ‘ का अंक भी आया…
Read Moreभूख
सकीना चलती चली जा रही थी कितने रास्ते कट गये इसका भान ही नहीं रहा,जब एक पत्थर से ठोकर लगी और अंगूठा लहूलुहान हो गया तब रुकना ही पडा़। थोड़ी देर वहीं बैठकर अंगूठे को सहलाया तब एहसास हुआ कि वह जीवित है । न जाने किस घड़ी में उसकी शादी ख़ुर्शीद के साथ हुई थी । तबसे एक पल का भी चैन नहीं था उसके जीवन में। पेशे से दर्ज़ी और दो बच्चों का बाप था ख़ुर्शीद। ग़रीबी जो न कराए वह कम है। ख़ुर्शीद की बड़ी बेटी नगीना…
Read Moreगुलमोहर
झूलती साँझ, झूले पर उगा, झुनझुनियाँ गुलमोहर…. उसकी आँखों में सुनहले गुलमोहर की लाली छा गई.दिल में घुटन हुई.स्मृतियों का बवंडर उठा,अंखियों की तलैया में अश्रुओं का सोता फुट पड़ा।सामनेवाली छत पर झूलता झुला और वियुक्त खालीपन आंसुओं के मारफत मानो असबाब-सा उड़ पड़ा… बांध पूर्णत: टुटा, जलप्रपात बह निकले, उससे पहले वह घर आ गई।चारपाई पर बैठ ग।.जब वहां से आखिरी बार गुजरी तब झुला रुनक झुनक सांकल से शोभायमान था। दिन के निकलते ही परस्पर हो जाती आँखों की गुफ्तगू…शाम को कोफी के मग से उभरती बाष्प…
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