मन के रसिक बोलो तो सही ,फिर कब आओगे ?
अभी तक तुमसे
मिल भी नहीं सका था
तेरा मुखड़ा भी
नहीं देख सका था
दिल की बात भी
नहीं कह सका था ।
सोते हुये मुझको चुंबन से , फिर कब जगाओगे ?
मन के रसिक बोलो तो सही ,फिर कब आओगे ?
दुनिया की नजरों मे
जो कुछ भी मेरा है ।
तुम्हारे बिना सब कुछ
आधा – अधूरा है ।
अभी तो तुम आए थे
मन से मन को
आत्मसात भी नहीं कर सका था ।
प्यासी धरा को , फिर कब सींच पाओगे ?
मन के रसिक बोलो तो सही , फिर कब आओगे ?
तुम्हारा आगमन
कितना भला लगा था ।
मुझे और मेरे अपनों को
तुझमें ही कोई अपना लगा था ।
आकर इस तरह चला जाना
एक चलता हुआ जुमला लगा था
मेरे दिल की प्यास , फिर कब बुझाओगे ?
मन के रसिक बोलो तो सही , फिर कब आओगे ?
स्नेहिल आलिंगन मे
तेरा मचलना
अनजाने मे तेरा
मेरी बाहों मे फिसलना
तेरी आंखो का जलवा
मद मे पगा था ।
रूठा हूँ खुद से , फिर कब मनाओगे ?
मन के रसिक बोलो तो सही, फिर कब आओगे ?
- जयशंकर प्रसाद द्विवेदी