तुम ! तुम ही हो

रच बस गया है

तेरा प्यार

मेंहदी सा

मेरे तन मन मे

अनचाहे , अनायास

बेवक्त बेहिसाब  ।

 

सौम्य , शीतल शांत

सिंदूरी आभा

जो घिर आई है

रह रहकर लहराते

केसों के कहर से अनभिज्ञ

अविचल व प्रेरक ।

 

मुस्कुराहट

जो दे जाती है आमंत्रण

आलिंगन का

बेसब्री का सबूत

चाहत का रंग

और

पता नहीं क्या क्या ।

 

सँजो सजाकर

रख लिया हूँ

उन लमहों के लिए

जब दर्दे जिगर होगा

और होगा

विरह व तनहा एकांत ।

 

उसकी वह खुसबू

जो मड़राती रहती है

हर वक्त मेरे इर्द गिर्द

सहारा बन सकेगी

शायद इसारा भी बन जाए

कल के लिए ।

 

तुम ! तुम ही हो

हर उपमाओं

और उपाधियों से ऊपर

उन बहारों के

उत्प्रेरक भी

जब हम हों , तुम हो

एक खिली खिली फिजा के बीच ॥

 

 

  • जयशंकर प्रसाद द्विवेदी

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