कविता क्यों लिखती हूँ

यह काल जैसे  प्रसव पीड़ा का हैँ…
तन और मन को झकझोर कर रख देने वाली प्रसव वेदना…
*शायद कुछ नया जन्म लेने वाला हैँ…*
वो वेदना,  जो अपनों ने दीं…. समाज ने,  वक़्त ने…
वह वेदना प्रसव वेदना सी ही…. मुझे
कलपा रही हैँ .
शरीर का रेशा रेशा चीख रहा हैँ
नस- नस, पोर – पोर तिड़क रहा हैँ
ज़ेहन में हर तंतु मथ रहा हैँ
माथे की नस तनते-तनते फटने को हैँ
कसती,  ढीली होती हुई ऱगे
दर्द से चीत्कारती साँसे ,
मुट्ठी कसते  हाथ,  कसमसाता,  उबलता लहू
खुली आँखो से झर झर बहते आँसू
श्वास रुकने के डर से निकलती आहें
कुछ खोने का भय मुट्ठी जकड रहा हैँ
कुछ छूटने का खौफ कलेजा हिला  रहा हैँ..
शरीर से अपना अंग  अलग हो  रहा  हैँ
इस जद्द-  ओ ज़हद में मन शरीर सब सुलग रहा हैँ….
फिर भी…..
दर्द के इस रेगिस्तान से… कुछ….
कुछ कोंपल सा फूट रहा हैँ..
कुछ नया जनम ले रहा हैँ…
शायद खुद का नया जनम…
शायद पुनर्जम… खुद का.. खुद से मिलने के लिए
नया और कुछ बेहतर होने के लिए…
पीड़ा से निकला सुख…
प्रसव पीड़ा का उपहार… शिशु
एक नया जन्म,  एक नयी संभावना, एक नया रास्ता,  एक नयी मंज़िल…
एक नव प्रस्फुटित…… मैं

 

  • सारिका श्रीवास्तव

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