इस शहर में
काम,काम औऱ काम
काम के बोझ से लदपद मै
सुबह,दोपहर, शाम।
बिजली की चौन्ध में दमदमाती वो शाम
नींद के झटकों से उलझी रात
और उस रात के आग़ोश से खोये अनगिनत तारे
जिनसे बेख़बर हुआ मैं
बुजर्गों से सुने थे जिनके किस्से ।
कभी कभी सोचता हूँ
उन्ही किस्सों की घनेरी, अंधेरी रात के बारे में
क्यूँ नजराया सितारों का जमघट
और वो चाँद का हाशिया
इस शहर में।
इंजनों की काली स्याह से
रचता दिन
गर्मचारकोल की चिपचिपाहट से
सुरबद्ध बेढंगे संगीत के शोर से
परेशान मैं
इस शहर में।
प्रकृति संग गाती हुई कोकिला को
सुनने पहुंचा चिड़िया घर
भूख,भूख और प्यास
चट कर गई उन कैद पंछियों को
जिनसे आज़ादी का क्षण महत्व जान पाता
इस शहर में।
रॉकेटों से खिंचती सफेद धारियां
दिखाई पड़ती हैं आसमान में
मैं इंद्रधनुष खोजता रहा
इस शहर के ऊपर
नील गगन में ।
कैफे, रेस्तरां, होटल, पार्क
फुटपाथ पर
संस्कृति को नोचती कोसती
जवानियों को प्रेमाग्नि मे
झुलसते देखा है
इस शहर में।
मैं उस चित्त सखा को
ढूंढ़ता रहा
इस शहर में
संस्कारित साँसों को
जिया जिसने
इस शहर में।
माँ
चुप्पी साधे हैं माँ
पिता की मौत के बाद
हो मृत्यु पराजित
माँ का विश्वास !
झुकी रीढ़ का कोण
किस हद तक
टिकेगा समतल धरती से
किस्सा दोहरायेगा
मिट्टी से जुड़ने का
दर्द सिमेटेगा
फ़िर रिश्तों का!
माँ का मौन
मर्म…. अहम
जान बूझ कर भी नहीं जानता
कि… कोख़ का जाया भी कहेगा
ए वृद्धा
तुम कौन… तुम कौन !
देह छोड़ती माँ
फ़िर भी वहीं राह
गर्भ के जाये
तूझे छू न पाये कोय आह
मेरे साये की छाँव
तेरा आसियाँ होंगी
औऱ साँसों की घड़ी
अनगिनत
मैं रहूँ न रहूँ
न मिटेगी कभी हस्ती तेरी
फ़लता रहेगा बागवां सदा
रब को सौगंध
यहीं वसीयत छोड़ जाती हैं
रुख़सती लेते हुए
हर माँ।
माँ शारदे वंदना
ॐ ऐ सरस्वत्ये नमैं
श्वेतावर्ण ,श्वेतपद्यामसना,वागेश्वरी
शुक्लवर्ण, शुक्लाम्बरा,शिवानुजा
मुरारिवल्लभा, सतोगुणी महाशक्ति
सत्यलोक,बैकुण्ठ निवासिनी
अंजली संकल्प स्वरूप
मूलप्रकृति आदिशक्ति रूप
परमचेतना, बुद्धिपरिज्ञा ,मनोवृत्ति संरक्षिका
हे वीणावादिनी
आचार मेधा का आधार
वर दे माँ
उल्लास, भाव संचार, ज्ञान, ईशनिष्ठा
परिष्कृत हो विचारणा, भावना औऱ संवेदना
सात्विकता और अनुउत्साह
श्रद्धा, तन्मयता
हरो जड़ता ,अज्ञानता
करो सर्वोच्च ऐश्वर्य से अलंकृत
स्वीकारो, त्रिकाल संध्या वंदन
ॐ ऐ सरस्वत्यै नमैं।
- राकेश छोकर