गजल

ख़ुद ही रोयें, ख़ुद मुस्काने लगते हैं
इश्क़ में डूबे लोग दिवाने लगते हैं

चार ही लोगों का क़िस्सा है सारे दिन
जब चाहे तब बात बनाने लगते हैं

आकर बैठो पास मेरे और सुन लो तुम
कैसे-कैसे ख़्वाब सताने लगते हैं

जगते हैं दिन रात न जाने क्यों ये लोग
मुझको तो ये लोग दिवाने लगते हैं

तेरे प्यार में पड़कर हमने ये जाना
ख़ुश होकर क्यों अश्क बहाने लगते हैं

रूप बदल लेने से आख़िर क्या होगा
रंग असल ही लोग दिखाने लगते हैं

रिश्तों पर पैसे ने अपना काम किया
हर मौक़े को लोग भुनाने लगते हैं

मीठे पर इक़ रोक लगी है, जब से ही
रसगुल्ले सपनों में आने लगते हैं

हाथ में लेकर हाथ चले थे मीलों हम
अब तो केवल स्वप्न सुहाने लगते हैं

बैठे-बैठे खो जाते हैं सपनों में
सारी दुनिया से अनजाने लगते हैं

बात बनाना कौन है मुश्किल, उनको जो
हाथों पर ही पेड़ उगाने लगते हैं

ख़त में लिख कर भेज तो दें हम सब दिल की
पढ़कर हम ख़ुद ही शरमाने लगते हैं

सारी-सारी रात जगाए याद उनकी
दिन निकले पर हम सुस्ताने लगते हैं

डॉ पूनम माटिया
दिल्ली, भारत
Poonam.matia@gmail.com

Related posts

Leave a Comment