गीत

भर रहा है समय प्राण में गीत को,

भूल कर वेदना साध संगीत को।

भोर का शीश है रेत के पाँव में ,

गंध सौंधी उड़े खेत में गाँव में।

खग सभी कोटरों से निकलने लगे,

खोल कर पँख वे फिर मचलने लगे।

फाँदने वे लगे दर्द की भीत को।।

भर रहा है समय प्राण में….

 

खेजड़ी के तले चाँद क्यूँ रुक गया।

ये गगन भी धरा की तरफ़ झुक गया

मंद सी पड़ गई साँझ की वात भी

केसरी-केसरी घुल रही रात भी

बात मन की कहो आज मन मीत को

 

ओस की बूँद जो पुष्प पर झर गई,

पाँखुरी-पाँखुरी नेह से भर गई।

लहलहाती हुई धान की बालियाँ,

झुंड में घूमती फिर रही तितलियाँ।

गुनगुनाती हुई प्रेम की रीत को।।

 

भर रहा है समय प्राण में गीत को…

 

तारीका बिछ गई रात के खाट पर

चाँद बैठा हुआ मेघ की टाट पर

साँवली-साँवली  यामिनी बढ़ रही

सीढियाँ-सीढ़ियाँ व्योम पर चढ़ रही

लिख रही है दिशाएं सभी प्रीत को।

भर रहा है समय….

 

  • आशा पांडेय ओझा

 

 

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