गीत

भर रहा है समय प्राण में गीत को, भूल कर वेदना साध संगीत को। भोर का शीश है रेत के पाँव में , गंध सौंधी उड़े खेत में गाँव में। खग सभी कोटरों से निकलने लगे, खोल कर पँख वे फिर मचलने लगे। फाँदने वे लगे दर्द की भीत को।। भर रहा है समय प्राण में….   खेजड़ी के तले चाँद क्यूँ रुक गया। ये गगन भी धरा की तरफ़ झुक गया मंद सी पड़ गई साँझ की वात भी केसरी-केसरी घुल रही रात भी बात मन की कहो आज…

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