बौद्ध कालीन भाषिक परिवेश एवं भाषागत विविधताएं

शोध सारांशिका-भाषा किसी भी कालखंड में किसी भी समाज के द्वारा विचारों के आदान-प्रदान का एक सशक्त साधन है । जब हम अपनी अभिव्यक्ति यों को समृद्ध करते हुए अनुभूति को उसमें समाहित कर के जनसामान्य तक अपनी बात पहुंचाना चाहते हैं, तो उसके लिए भाषा अत्यंत प्रभावशाली माध्यम माना जाता है । हमारे द्वारा अपनाए गए शब्द हमारा परिचय और हमारा पहचान देते हैं। हम यह मानते हैं कि भाषा के द्वारा ही किसी भी कालखंड की परंपराओं को रीति रिवाज को मान्यताओं को जाना जा सकता है, पहचाना जा सकता है। बहुत बेकार खंड में स्वयं गौतम बुद्ध के द्वारा अपनी शिक्षकों को जन-जन जाने के लिए उस समय प्रचलित भाषा का साधन के रूप में इस्तेमाल किया  गया । भाषिक परिवेश और भाषा की विशेषताएं किसी भी कालखंड में चलने वाली समस्त क्रियाकलाप को सुनिश्चित करते हैं । इस आलेख में हम इसी विवेचन को लेकर के अपना पक्ष रखेंगे।
प्रमुख शब्द -सांस्कृतिक विविधताएं, संरचना, दृष्टिकोण, परंपरा, पाली, प्राकृत, अपभ्रंश, विचार -विनिमय ,प्रयोगवादी, उपादान, जागरूकता, पिटक , महावग्ग जातक कथाएं।
डॉक्टर जय शंकर शुक्ल
सामान्यतया बौद्ध काल छठी शताब्दी ईसा पूर्व से लेकर के परवर्ती काल में शंकराचार्य के उदय तक माना जाता है । वास्तव में वह कालखंड भारतीय सांस्कृतिक विविधताओं एवं संरचना की दृष्टि से विलक्षण कहा जा सकता है । भाषा, भाव, विचार, संस्कृति एवं सभ्यता के दृष्टिकोण से बौद्ध काल भारत के समृद्धतम कालखंडों में से एक माना जा सकता है। “उस समय की प्रचलित भाषाओं में पाली , प्राकृत एवं अपभ्रंस प्रमुख थी, जिनको गौतम बुद्ध ने अपने उपदेश की भाषा के रूप में अपना करके जन सामान्य से जुड़ने के लिए एक आधार भूमि प्रस्तुत किया।”#1
जब हम यह देखते हैं कि किसी भी विचार विनिमय और विचार प्रसार के लिए कोई भी संस्था अथवा व्यक्ति जन्म भाषा को अपने प्रयोग में लाती है तो विचार न केवल दीर्घकाल तक जीवित रहते हैं बल्कि कार्य व्यवहार में बहुत लंबे समय तक प्रयोग में लाए जा रहे होते हैं। बौद्ध काल का यह प्रयोगवादी था भाषा के आधार पर उस कालखंड के विचार भावनाओं को संग्रहित करने का एक महत्वपूर्ण उपादान भी माना जा सकता है जिसे अपनी विशिष्टताओं के साथहम देखते हैं। मानव सदा से ही मानव जाति के बेहतरी के लिए काम करना चाहता है। जो लोग इस तरह का कार्य कर युग में अमर हो जाते हैं यह अमरता हमारे यस हमारे ख्याति हमारे कर एक निश्चित आकार देते हैं। इसके माध्यम से हम समाज में सच्चाई की ध्वजा पताका को निरंतर आगे बढ़ा सकते हैं।
गौतम बुद्ध अपने जन्म स्थान के भाषा और विचार को लेकर  उस के माध्यम से लोगों में जागरूकता फैलाने के साथ खून से जुड़ने की जो कवायद देखी जा सकती है।  वह अपने आप में अत्यंत महत्वपूर्ण है। बौद्ध धर्म के मूल ग्रंथ पाली  भाषा में है। वे तीनों पिटक  हमें पाली भाषा में ही मिलते हैं शुत्त पिटक, विनय पिटक एवं अभिधम्मा पिटक इसके प्रमुख उदाहरण मारने जा सकते हैं। पिटक ग्रंथों, जातक कहानियों या महावग्गों की भाषाओं में विचारों में हम उस कालखंड की स्थितियों का आकलन एवं प्रस्तुतीकरण पाते हैं।  इन ग्रंथों में किस तरह की वैचारिक और सांस्कृतिक सामग्री है इससे बढ़कर हम भी देखते हैं कि ग्रंथों के माध्यम से उस समय के भाषाई परिवेश को, भाषाई संरचना को जोड़ने का काम किया गया।
“बहुत सारे शब्द जो आज प्रचलन में है अथवा नहीं है लेकिन उनके लिए वह कालखंड और उस कालखंड में रची गई साहित्य महाकोष की तरह हमारे सामने आते हैं।  बौद्ध कालीन भाषा एवं संस्कृति पर विचार करने के पूर्व हमें भौगोलिक एवं ऐतिहासिक दृष्टिकोण से उस कालखंड के सीमाओं के बारे में एक राय होना होगा। “##2  वास्तव में किसी भी विभाग के भौगोलिक कारक उस भू-भाग में प्रचलित संस्कृति के लिए बहुत हद तक उत्तरदाई होते हैं । सांस्कृतिक विविधता मेंउसका पालन करने वाले लोगों के निष्ठा का होना अत्यंत आवश्यक होता है। जब निष्ठावान लोग अपने समर्पण के साथ किसी कार्य को करते हैं तो देर कल तक अपनी उपस्थिति को रेखांकित करता है। बौद्ध धर्म की भाषिक पृष्ठभूमि में यह बात बड़े महत्व की है कि हम भाषा के द्वारा ही अपनी परंपराओं को अक्षुण्य रह सकते हैं।
” वास्तव में भूगोल ही व्यक्ति को, उसके उच्चारण को, उसके द्वारा प्रयोग में लाए जाने वाले शब्दावली को आकार देता है। हम देखते हैं कि पूर्व में *व* को “भ” कहना  “श” को “स” कहना जैसे उच्चारण गत विशेषताएं या लैंगिक विषमता शब्दों के प्रयोग में हमारे लिए यह मानक से इतर हो सकती है। लेकिन यह उस कालखंड की और वहां के लोगों की प्रमुख विशेषता मानी जा सकती है। “###3 हम इसको तिरस्कृत और तिरोहित नहीं कर सकते क्योंकि पश्चिम में भी *न” को “ण” कहा जाता है।
बहुत सारे और लोगों को बहुत सारे अक्षरों को बोलने में उनका लोप सामान्यतया देखने में आता है। यह एक ऐसी परंपरा है जो अपने समय के परिवेश धाराओं को सुनिश्चित करता है। पूर्व में भाषिक अवधारणा और पश्चिम में भाषिक अवधारणा में जमीन आसमान का फर्क रहा है । “प्रचलन में आने वाले शब्दों में हम यह देखते हैं वहां की उपलब्धियां, वहां के ऐश्वर्य, वहां का स्थापत्य, भवन निर्माण, खानपान, रीति- रिवाज जौर रहन-सहन के तौर तरीके उनके मूल्य ,मान्यता ,आदर्श और विश्वास सहज ध्वनित होते हैं । यह अपने आप में बहुत बड़ी बात है । जब हम परिवेश और उसकी संरचना पर बात करते हैं तो सहज ही यह बोधगम्य होता है । “####4
हमारे द्वारा आज प्रयोग में लाए जाने वाले बहुत शब्द हो सकता है आने वाले दिनों में अपना अस्तित्व खो बैठे । लेकिन आज के लिखे गए साहित्य में वह हमेशा जीवित रहेंगे , प्रयोग में हमेशा जीवित रहेंगे । “इसी तरह से  लौकिक  या धार्मिक साहित्य के अंतर्गत बहुत सारे भाषिक विविधता और विशेषता के दर्शन होते हैं ,जो उस कालखंड की प्रवृत्तियों को हमारे सामने लाते हैं। परिवेश हर तरह से विनिर्मित होता है। “#####5 यह भाषा का भी होता है , धर्म का भी होता है , संस्कृत का भी होता है तथा सभ्यता का भी होता है । परवेश सदैव शहरी और गांव से भी अलग-अलग बटा होता है  जिसकी हम विवेचन अथवा व्याख्या कर रहे हैं।
“मानवीय संचेतना में भाषा उसके व्यवहार की एक महत्वपूर्ण कड़ी है। हमारी भाषा ही यह बताती है कि हमारे संस्कार किस तरह के हैं। हम किस तरह के परिवार से आते हैं। किस तरह के समाज में हमारा पालन-पोषण हुआ है। किस तरह के लोगों में हमारा उठना बैठना है। भाषा ही एक व्यक्ति को उसका सम्मान दिलवाता है।” ######6 भाषा ही एक व्यक्ति का तिरस्कार ही करवाती है । अब यह हम पर निर्भर है कि हम भाषा के द्वारा अपने आपको सम्मान के उच्च शिखर  पर बैठा हुआ पाते हैं अथवा तिरस्कृत और तिरोहित हो कर के समाज में अपमान के भागीदार होते हैं।
वास्तव में सिद्धार्थ गौतम बुद्ध ने जब बुद्धत्व को प्राप्त किया तो उसके बाद उन्होंने सबसे पहले अलार कलाम  को जो उनके गुरु थे , उन्हें ढूंढा और उन्होंने उनको उस सत्य के दर्शन करवाएं।  उसके बारे में विवेचन किया, उस सत्य पर उनसे बातचीत की और यह कहा कि जिसे आप तक तक आपने नहीं ढूंढा वह यह है उस सत्य का मैंने अनुभव किया है।सत्य की हमेशा समय सापेक्ष होता है सत्य को शब्दों से नहीं उसकी सत्य धर्मिता के आवरण के अनुसार जाना जाता है। सत्य एकमात्र वह शेर से स्थिति है। जिसको पाने के लिए हर व्यक्ति जीवन पर्यंत प्रयास करता रहता है । हमारा प्रयास हमें हमारे सत्य से अवगत कराता है। यह सत्य ही आत्मसाक्षात्कार है यह सत्य ही जीने का मकसद है।। और इस मकसद को प्राप्त करने के लिए बहुत धर्म और इसके भाषाई पृष्ठभूमि को जानना अत्यंत आवश्यक है
“गौतम बुध के मन में आया कि मैं सारी दुनिया को सत्य बताना चाहता हूं । फिर अलार कालाम के साथ अपने चार ब्राह्मणों के पास गए और उन्हें उस सत्य को बताया। इस तरह से यह काफिला चल निकला। अपनी धार्मिक विवेचना शुरू की तो उनके सामने वैदिक संस्कृत संस्थान पहले से स्थापित थे। बुद्ध ने यह समझ लिया कि यदि उन्हें आमजन के बीच में अपनी पैठ बनानी है।”

#######7 अपने धर्म की विशेषताओं को बताना है । धर्म के आचारों का प्रसार करना है और लोगों में अपने आप को स्थापित करना है। तो जरूरी है कि वह लोगों की भाषाओं में अपने विचार विनिमय और अपने भाव प्रकट करें ।उनकी समस्याओं को सुन सके उनके सवालों को सुनकर उनका जवाब दे सके। बौद्ध धर्म इस मामले में अपने पूर्ववर्ती धर्मों से अलग है कि वहां पर संवाद की प्रचुर संभावनाएं सदैव बनी रहती हैं। यह संभावनाएं अपनी पारंपरिक सत्यता को सिद्ध करने का एक माध्यम बनती है। जिनके द्वारा मनुष्य पूर्व में मिले अर्जित ज्ञान को कुछ नया मिलाकर आने वाली पीढ़ियों हेतु से तैयार करके सौंपता है।
“संवाद की यह स्वस्थ और स्वतंत्र प्रक्रिया गौतम बुद्ध ने उस समय की प्रचलित भाषा पाली में शुरू की। यही कारण है कि वह जन आंदोलन बनकर खड़ा हुआ।वह तबका जन आंदोलन आज के वैश्विक परिवेश में अपने आप को आज भी अर्थ वान बनाए हुए हैं ।”########8मानव जाति की बेहतरी के लिए जो कार्य होते हैं वह दीर्घकाल तक अपनी उपस्थिति को जन सामान्य और जन विशिष्ट में बनाए रखते हैं। बौद्ध धर्म इसी रूप में देखा समझा और जाना जाता है । इसके माध्यम से आज भी विश्व को एक सूत्र में जोड़ कर उस की परिकल्पना की जा सकती है। हम जानते हैं कि व्यक्ति का प्रथम उद्देश्य आत्म कल्याण होता है। लेकिन यह तब तक संभव नहीं है जब तक कि वह जिस भूभाग में रह रहा है उसकी सीमाएं सुरक्षित ना हो । उसके भौतिक संसाधन उसके लिए उपलब्ध ना हो तो परिकल्पना ही पूरी तरह से आधारहीन है। उसके उदर पूर्ति से लेकरउसके रहने की व्यवस्था का प्रबंध हो जाने के बाद ही आत्म कल्याण जैसी परिकल्पना को साकार रूप देना संभव हो पाता है।
दुनिया में डेढ़ सौ से अधिक देश ऐसे हैं जहां बहुतायत बौद्ध धर्म के लोग पाए जाते हैं। यह इस धर्म की ताकत है के इसने वैश्विक परिवेश में अपनी स्वीकार्यता को अब तक बनाए रखा है । यह हम भारतवंशियों के लिए बहुत विशिष्ट बात है। कि हमारे मध्य से प्रचलन में आया एक धर्म दुनिया के बड़े देशों के ज्यादातर निवासियों का धर्म बना हुआ है। जापान, कोरिया और चीन  इन सारे देशों में वहां का मुख्य धर्म बौद्ध धर्म ही है । धर्म देशकाल वातावरण को एक आधार प्रदान करता है। इसकी शिक्षाएं हमें निरंतर आगे बढ़ने को प्रेरित करती हैं । जब कभी भी हम आशंका के गहरे कुएं में डूबते हुए से होते हैं तो ऐसे समय में वह धर्म ही है। जो हमें वहां से निकाल कर के सत्य से हमारा परिचय कराता है। सत्य से हमारा परिचय प्रक्रियाओं के अधीन होता है । और वह प्रक्रिया है धर्म की मूल्यों को लेकर के हमारी मदद करती हैं।
इसी तरह सिंगापुर, इंडोनेशिया, थाईलैंड  इन देशों में भी बहुत धर्म अपनी पकड़ को काफी गहरे तक बनाए हुए हैं। भारत इस रूप में बौद्ध धर्म की जन्मस्थली के रूप में माना जा सकता है। गौतम बुद्ध ने अपने जीवन में जिस धर्म की परिकल्पना की थी आज वह साकार रूप से हमारे सामने उपस्थित है । यह हम सब की एक पूंजी है, जिसके  माध्यम से हम अपने अस्तित्व अपने अहमियत को सारे विश्व के सामने रख सकते हैं। मनुष्य हमेशा से सत्य का अनुगामी होता है। सच्चाई उसे उसके उद्देश्य के करीब ले जाती है । उद्देश्य प्राप्ति हमारे जीवन का परम लक्ष्य होता है।
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#1बुद्धचर्या, राहुल सांकृत्यायन, पृष्ठ 3 /37।
##2बुद्ध कालीन समाज एवं धर्म,पृष्ठ डॉक्टर मदन मोहन सिंह, पटना, 1974
5 /35।
###3बौद्ध संस्कृति का इतिहास, भाग चंद्र जैन, पृष्ठ 201।
####4बुद्ध कालीन समाज एवं धर्म, डॉक्टर मदन मोहन सिंह, पटना, 1974, पृष्ठ 2/ 90।
#####5 बुद्धचर्या, राहुल सांकृत्यायन, पृष्ठ 3 /25।
######6 बौद्ध संस्कृति, राहुल सांकृत्यायन, कोलकाता, 1952, पृष्ठ- 7/ 14।
#######7 बुद्धचर्या, राहुल सांकृत्यायन, पृष्ठ 3 /26।
########8भारतीय संस्कृति व उसका इतिहास, सत्यकेतु विद्यालंकार, पृष्ठ  6/11।

शोध पत्र लेखक-
डॉक्टर जय शंकर शुक्ल
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